Monday 3 December 2012

यादें.....




चुभती बेचैनी है सीने में,
नमी सूखी है नैनों में,
अपनों की चादर छिटकी है
अनाथ ये ' तन्हा ' बिखरी है.

कुछ दिन बीते, मुझे छोड़ गए 
खींच के साया अपने-पन का 
काट नेह-तरु की डाली को  
जलती यादों में छोड़ गए.

कभी हाथ पकड़ चलाते थे 
दुनियां के ऊबड़-खाबड़ रस्तों पर 
आज उनके साथ को आँका करती हूँ.
इन रीते हाथों की लकीरों में

द्वन्द का सागर उठता है,
मन व्याकुल हो मचलता है 
जी चाहे चीख के रो लूँ मैं
पर वीरान सी आँखे अटकी हैं,

धुंधली आकृति बन जाती है,
तब ढेरों बातें करती हूँ...
फिर भी वो पास नहीं आते हैं,
मैं उन  बिन सिसका करती हूँ.


Tuesday 6 November 2012

कब तक रूठे रहोगे





अपनी तमाम उम्र से 
दो सावन निचोड़ दिए
थे तुमने,  और 
बंजर पड़ी धरती से 
कंटीले झाड हटा मैं भी  
खुशियों के अंकुर बो 
रंग-बिरंगे फूलों की 
लह-लहाती फसल पा 
झूम रही थी।

कितने खुशगवार दिन थे 
दर्द की सारी परतें 
बे-बुनियाद हो 
अपना ठिकाना 
भटक गयी थीं !

आज भी नजरें 
तलाश रही हैं 
प्रेम से लबालब 
उस कश्ती को
जो  डूब गयी थी 
शक की नदी में।
 
कई निशब्द से 
पैगाम भेजे और 
उम्मीदें बाँधी कि 
हर बार की तरह  
अनकहे मजमून 
पढ़ लोगे तुम  !

फलक पे इस बार 
धुंध गहरा गयी है 
मेरे एहसास 
शायद नहीं पहुँचते अब  !

अवयवों से सांसों तक 
उतरती मौत 
न जाने कब आ जाये--- 

बताओ कब तक
फासले तक्सीम कर  
रूठे रहोगे मुझसे 
जफा के स्वांग 
हमारे बीच 
कब तक चलेंगे ???

न बिसरेंगे वो सावन 
जानते हो तुम भी ,
जबरन लगे  तो 
देखो सामने 
कुछ लकडिया जल रही हैं 
हाँ मैंने ही जलाई हैं 
रख आओ उस पर 
नकारी हुई मेरी मुहोब्बत को 
मैं भी समझा लूँ 
अड़ियल मन को 
कि  श्राद्ध कर ले 
अपनी मुहोब्बत का !!



Monday 29 October 2012

अपेक्षाएं





गहन प्रेम ही तो किया था प्रिय
क्या इसमें भी तुम्हारी 
शंकाएं सिर उठाती हैं ?
यह  केवल आसक्ति नहीं थी प्रिय !

इसमें दोषी शायद मेरे 
कृत्य ही हैं कहीं न कहीं.
अपेक्षाओं से भरी 
बदली लिए 
उमड़-घुमड़, बस  
बरस गयी तुम पर 
बिना जाने कि ये 
गहन प्रेम तुम्हें  भी 
मुझसे है या नहीं ...
 एक पल को भी 
तुम्हारी इच्छा का  
प्रस्फुटन तक 
होने नहीं दिया मैंने.
आज सोचती हूँ...
कितनी निर्ममता से 
मांग की थी 
मैंने अपने नेह के 
प्रतिदान की ...
उचित ही तो है  फिर 
तुम्हारा मेरे प्यार  पर 
शंका करना औ दुत्कारना .
सच है  फिर....
तुम्हारा मेरे प्रति 
उदासीन होना और 
मेरे प्यार को 
तथाकथित प्रेम 
कह देना..... !!


Friday 19 October 2012

कैसे गरीब ग़नी हो पाए




नेवैद्य में  धनी  ने  धन था  चढ़ाया 
निधनी ने श्रद्धा से ही काम चलाया 
आज  करोड़ों  के  अभीक   हैं पण्डे   
करें सोने-चांदी की नीलामी के धंधे !

चाह है ये धन, धन-हीनों को मिल जाए 
बाँट  का  नीतिपूर्ण  पर मिले न उपाय 
सरकारी  हाथ  में  बन्दर-बाँट  हो जाये 
कानून  के  प्रहरी  भी  गटक  ही  जायें  !

बैंक  बेकस  तक पहुँच न पाए 
खाता क्या है दीन जान न पाए   
कैसे   गरीब   ग़नी   हो   पाए  
ठग नगरी में कौन राह सुझाये !

सांई  अब  तो   तुम  ही  पधारो 
अपने  अर्घ  को  आप  ही  बांटो 
तुमसे भला न कोई बांटन वाला  
जो  समता   से   करे   बंटवारा  !

सदा  रहे  बाबा  दीन  के  भ्राता 
अकूत  धन के  हो तुम ही दाता 
बेघि हरो हर  विघ्न  निर्बल का 
गरीबी  का  करो  निर्मूल  नाशा !



Monday 15 October 2012

देशवासियों तुम मूक ही रहना





आज लोगों  में आग नहीं  है 
कलम  में  भी  धार  नहीं  है 
डर   ने   चादर   फैलायी   है 
या स्वार्थ में दुनियां भर्मायी  है ?

कान  के  बहरे  घूम  रहे  हैं
खुली  आँख  के  ऊंघ  रहे हैं 
फटे   में  टाँग  अड़ाएं  कैसे  
या अपनी बारी तक मूक बने हैं ?

देश तो नहीं  बिका ना अब तक 
दंगों का तांडव हुआ न अब तक 
इंतज़ार  में  हैं  भारतवासी, कि 
पड़ोस में भगत हुआ नहीं है अब तक !

नेता  धन   को  सूत  रहे  हैं 
विपक्षी भी मौका ढूंढ रहे हैं 
संविधान को अपनी रखैल बनाए 
हर  स्कैंडल  से  छूट  रहे  हैं।

खून   सफ़ेद    हुआ    है   शायद 
या जीवन का नव सूत्र ये शायद 
अंधे-बहरे धन-वैभव में  जी लो तब  तक  
देश  न  बिक  जाये  जब तक  ?

देशवासियों  तुम मूक ही रहना   
लिस-लिसेपन सा जीवन जीना 
बलात्कार  करे   कोई  कितना 
किसी आजाद को तुम जन्म न देना !


Tuesday 2 October 2012

गिद्धों का तांडव




आह   कोई   ऐसा    भाव   नहीं    जो   दुख   मेरा   सहलाए 
दुविधा   बाँट   मेरे   मन   की   जो   सुकून  थोड़ा   दे   जाए.
वर्णों    की   माला   के   आंखर  शब्दों   में   ना  ढलने  पायें 
मन - संताप  जो  हर  लें  मेरा,  पीड़ा  कुछ  तो कम हो जाए.


चार   लाल  हैं   एक   मात  के,  जिन्हें पेट  काट  कभी पाला 
रोज  सुबह  अब  वो  छोड़  चौराहे, माँ की उदर  पूर्ती हैं करते
नग्न नृत्य करे बेटों की बर्बरता, माँ से भीख  मंगवाया  करते
देख   दुष्टता   मानव   मन   की,   नयन  आज  मेरे   हैं  रोते.


उधर    देखो     नित    ही    एक    दुल्हन    जलाई     जाती
हाड़ - मांस  का  पुतला  हो  मानो, यूँ  जिन्दा  दफनाई जाती.
नारी  पूजी  जाती  जहाँ  वो  सभ्यता  आज  है   रौंदी  जाती.
ये   पीडायें  रोती  रात  रात   भर,  न   मुझको   सोने   देती.


तीन   साल   की   नादान  नंदिनी  पिशाचों  की हवस मिटायें.
पशुओं सा जीवन जीती मानवता, तुच्छ कीटों सी मसली जाए.
घोटाले  करें   कितने  चाहे   मुहं   कोयले   से   काले  हो  जाएँ 
बापू    के    सब    बने    हैं    बंदर ,  ये     न    आवाज़   उठायें.


डीजल - पेट्रोल और गैस  को पीकर  करोड़ों की  सैर कर आयें  
अनशन  करें   या  बनें  हजारे  लोक  बिल  तो  ना  लाने  पायें  
महंगाई  बढती  जाए  सुरा  सी,  सोनिया  पर  ना  काबू  आये 
गिद्धों  का  चतुर्दिक  तांडव  देख, मन मेरा खून के आंसू बहाए.


Corruption in India


Monday 17 September 2012

अकेला पन




जन्म से ही 
अकेलेपन से बचता इंसान  
रिश्तो में पड़ता है.
बंधनों में जकड़ता है.

कुछ रिश्ते धरोहर से मिलते  
कुछ को  अपनी ख़ुशी के लिए
खुद बनाता है 

कुछ दोस्त  बनाता है
उम्मीदें  बढाता है
कि वो अपनत्व पा सके 
अकेलेपन से पीछा छुड़ा सके.

लेकिन जब उम्मीदें 
टूटती हैं 
शिकायतों का 
व्यापार चलता है 
फिर द्वेष घर बनाता है

हर रिश्ता चरमराता है
दुख और पीड़ा  से 
इंसान छटपटाता है.

तब एक वक़्त ऐसा आता है
हर जिरह से इन्सान हार जाता है.
संवाद मौन धारण कर 
गुत्थियों को उलझाता है 

बंधन मुक्त हो इंसान 
अकेला पन चाहता है.
विरक्ति की ओर अग्रसर हो
शून्य में चला जाता है 

तब .....

तब न तेरी न मेरी
सब ओर फैली हो 
मानो शांत, श्वेत 
धवल चांदनी सी
बस ...
बस वही पल 
जो शीतलता दे जाता है
वही जीना साकार 
हो  जाता है 

अंत में तो 
इंसान अकेला ही रह जाता है
कोई दोस्त, कोई साथी 
काम न आता  है.
फिर क्यों न अकेलेपन को ही 
अपनाता है

Tuesday 4 September 2012

दरारें मुनासिब नहीं




प्यार के बदले 
प्यार मिले 
ये जरुरी नहीं
एक दूसरे की 
चाहत मिल जाए 
ये कम तो नहीं.

मिल न पायें 
इक दूजे से 
मजबूरियों के चलते 
तो कोई बात नहीं..
ख्यालों में 
किसी के रहना भी 
कुछ कम तो नहीं.

मुमकिन है 
विचार मिलें, न  मिलें ...
दर्द एक दूसरे का 
समझ से परे हो नहीं.

नम हो जाएँ जो आँखे
किसी की सीली रातों के 
खामोश, तन्हा दर्द पे 
ये क्या काफी नहीं 
अपनेपन के लिए.

समझ लें ये बातें 
जो  कही जाती नहीं
तो दरारें किसी रिश्ते में 
मुनासिब नहीं.


Wednesday 18 July 2012

जीवन प्रश्न




मैं जीवन और मृत्यु के 
संयोग में हूँ.
अपने जीवन की साँसों के 
कोमल धागों में 
बंधा अवश्य हूँ, लेकिन 
विश्वास की काल्पनिक भित्ति पर
अपने जीवन को थाम रखा है.
किसी की दुत्कारों में हूँ
या दुलार में.
किसी के रोष में हूँ
या स्नेह में.
प्रतीक्षा में हूँ
अथवा नैराश्य में.
राग में हूँ
या वैराग्य में.
विश्वास में हूँ
या विडम्बना में.
मैं इन विचारों के 
उतार-चढ़ाव में 
उलझा पड़ा हूँ,
और प्रयाण की 
अंतिम उच्छवासों में 
लटका हुआ हूँ.
मैं किस ओर हूँ,
किस ओर नहीं,
मैं स्वयं नहीं जानता 
जीवन का यही 
सनातन प्रश्न है.

वास्तविकता में तो 
मैं स्वयं में 
कुछ नहीं हूँ,
माया और साथ का 
ये  मोह.....
आह  ! विश्वास और संदेह का 
ये मोहक मिलन !! 
कैसी विडंबना है ये   
मैं जीवन के हर क्षण में 
भयभीत हूँ  !!



Wednesday 11 July 2012

ये दोस्ती



जब नासूर तुम्हारे भरने लगें 
जब दिल की जलन ठंडी होने लगे
जब अश्क आँखों से सूख चलें
जब विकार  राहें भटकने लगें.
जब अविश्वास पर विश्वास आने लगे
जब रिश्तों की गर्माहट याद आने लगे
जब दोस्ती की चाह फिर से जगे
जब प्यार की हूक दिल में उठे 

तब पलट के एक बार देखना मुझे
मैं वहीँ हूँ जहाँ थी पहले  खड़ी
जहाँ से भटके थे राह तुम अपनी
जहाँ मेरी बाते तुम्हें तंज देने लगी थी
जहाँ सवाल मेरे तुम्हें अखरने लगे थे
जहाँ मेरी शिकायतें तुम्हें दर्द देने लगी थी
जहाँ तुम्हारी "मैं' तुम्हारे संग हो चली थी
जहाँ तुम्हारे वर्चस्व भाव में मैं दबने लगी थी
जहाँ तुम्हारे अहम् ने मुझको बोना किया था
जहाँ तुम 'श्रेष्ठ' और मैं 'निम्न' होने लगी थी
जहाँ गैरों के बोल तुम्हें लुभाने लगे थे
जहाँ तुम्हारे झूठे बोलों ने तुम्हें झकझोरा नहीं था
जहाँ मजबूरियां बहाना बन गयी थी

जहाँ मेरी यादों से तुम नाता तोड़ने लगे थे 
हाँ मैं आज भी वहीँ उसी मोड़ पर खड़ी हूँ.
मगर पलटना तभी तुम जब 
खुद से वादा करो कि  
अब लौट के  ना जाओगे 
अपने विकारों पर विजय पाओगे
मुझ पर विश्वास कर पाओगे
मैं को तोड़ हम हो जाओगे
हाँ बहुत सी शर्ते हैं
इस दोस्ती की
ये शर्तें तो तुमको
निभानी पड़ेंगी
वर्ना ये दोस्ती दिल से 
छुडानी पड़ेगी।



Thursday 21 June 2012

हंसी का पात्र


टूटी-फूटी 
अस्तव्यस्त सी 
अपनी नींद की चादर से 
शरीर को छुड़ा,
अपने मस्तिष्क के कुछ
खोये और जगे,
कुछ जीवित और मृत प्रायः 
कुलबुलाते कीड़ों का 
भार वहन करता सा मैं ...

खुद को सूत्रधार की 
कठपुतली महसूस 
करता हुआ, 
उसकी ठोकरों की पीड़ा 
सहने को विवश 
भावनाओं के अंगारों 
पर झुलसता, छटपटाता ...
विश्वास मार्ग की 
भूलों भरी वेदनाओं  में 
तिरस्कृत होता मैं और 
मेरा यह अपमानित दर्द 
असमंजस में हैं 
कि क्या ऐसा भी कभी 
हो सकता है कि 
जिसे दिल की गहराइयों में बसा,
उसके  साथ को 
अपना सौभाग्य बना 
' कोई मेरा भी है ' के  
अहसाह को 
विश्वास के हिम पर बिठा 
अपने प्यार को 
सुरक्षित मानता रहा ....
वही प्यार, जीवन संघर्षों के 
घात-प्रतिघात की 
पीडाओं को सहते हुए 
अवहेलना,अविश्वास,
दुत्कार और 
परायेपन की आंधी में  
यूँ उजड़ जाएगा.

प्रतीत होता है 
जैसे  आज 
ये  भावनाएं,  
ये राग, अनुराग,
प्रीती, अनुरक्ति,विश्वास 
सब मानो चौपड़ पर
सजाये हुए प्यादे हैं 
जिन्हें मैं जूऐ में हार गया हूँ,
और 
इस अट्टहास भरे जीवन के 
मसखरे पन से बचता-बचाता सा
एकदम तनहा, लडखडाता, 
लहूलुहान साँसों के तार 
जोड़ने का 
असफल प्रयास करता हुआ 
स्वयं के लिए 
एक हंसी का पात्र बन कर 
रह गया हूँ मैं.

Saturday 9 June 2012

देव व्रत


मैं  प्रतिभा सक्सेना जी के  ब्लॉग लालित्यम्  की  नियमित पाठक हूँ.  प्रतिभा जी के  इस ब्लॉग पर आजकल  पांचाली कथा की श्रृंखला प्रस्तुत की जा रही है. इसी श्रंखला के तथ्यों  और घटनाओं से प्रेरित होकर भीष्म पितामह से सम्बंधित जो विचार मेरे मन में उपजे ..उनको यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ ...


देव व्रत !
हस्तिनापुर ने 
क्या पाया तुम्हारी 
प्रतिज्ञा से ?
पिता के दैहिक पोषण 
के लिए एक अबला 
को रथ पर 
लिवा  लाये.
किसका  हित  साधा ?
क्या हस्तिनापुर का   ?
व्रत तो व्यापक हित का था न गांगेय  ?

ब्याह लाये
बेबस, भयाक्रांत,
स्वयंवराओं को 
हतवीर्य रोगी भाइयों 
के लिए .
और खड़ा कर दिया...
वारिस प्राप्ति हेतु 
अभद्र धीवर सुत समक्ष !
किसका मान बढाया ?
नारिजाति या पुरु वंश का ?

नियोग करते गर अम्बा से 
तो हरे कौन, वरे कौन  
क्या प्रश्न उठ पाता ?
या समर्थ संतान न पैदा होती, 
कुल की रक्षा हेतु ?

पितृ ऋण से मुक्ति पा 
क्या मातृ आज्ञा का 
सम्मान किया या 
अपने व्रत का मान किया ?
वंश बेल सूख गयी 
पर क्या  तुमने नीति से 
काम लिया ?
रौंद दिया कितनों का 
अस्तित्व 
क्या यही था देव व्रत का 
दैवव्रत ?

कौन सी थाती सौंपी 
अगली पीढ़ी को ?
आजीवन मर्यादाविहीन 
व्यवहार सहे  
और कहलाये पितामह 
किसके मान की रक्षा की 
तुमने देव...अपने  ?

भू-लुंठित नहीं हुए तो क्या 
शर-शैय्या पर गिर 
कौन सा राजसी ठाट पाया 
वसु तुमने ?
आज सोचो किसका भला हुआ 
कौन उद्देश्य पूर्ण हुआ ?
किसका हित सधा
तुम्हारी इस महान प्रतिज्ञा से 
भीष्म ? 

Wednesday 30 May 2012

चौखटें





तुम्हारे घर की 
चौखटें तो
बहुत संकीर्ण थी...
चुगली भी करती थी
एक दूसरे की...
फिर तुम कैसे
अपने मन की
कर लेते थे...?
शायद तुम्हारी चाहते

 घर की  चौखटों
से ज्यादा बुलंद थी तब.
आज ....
लेकिन आज
हालात जुदा हैं..
चौखटें तो वहीँ हैं 

मगर चाहतों की चौखटों में
 दीमक लग गयी है...इसीलिए
मजबूरियों ने भी
पाँव पसार लिए हैं.
कितना परिवर्तन-पसंद
है ना इंसान ....
घर की चौखटें बदलें  न बदलें ...
मन की चौखटों को तो

 बदल ही सकता है न 
अपनी इच्छानुसार  !!



Friday 18 May 2012

लौट आओ न पापा !


आज १८  मई पर ये चंद शब्द मेरे पापा की ११ वीं बरसी पर .....एक बेटी की बातें अपने पापा से ......



पापा देखो ना आज 
मैं कितनी सायानी हो गयी हूँ.
आँखों में  नमी नहीं आने देती
सदा मुस्कुराती हूँ.
सबके चेहरों पे हंसी लाती हूँ.
आपने ही सिखाई थी न ये सीख  ....
संतुष्टि के धन को संजोना
शिकायत न करना !


आपने ही अपनी धडकनों से 

लगा मेरी धडकनों को
लोरियां सुनाई थी
मैं भी अपने बच्चों को
अपने सीने से लगा
ऐसी ही लोरियां सुनाती  हूँ,  पापा !

आप सदा कहते थे न
मैं आपका अच्छा बेटा  हूँ
मैं अच्छी भी बन गयी हूँ  

पापा अब तो लौट आओ न पापा !

पापा आपके बिना तो मैं

सागर हो कर भी मरुस्थल हूँ.
सबके बीच स्वयं को भुला कर भी
आपको नहीं भुला पाती पापा !

पापा तो सदा पापा ही रहते हैं ना 

फिर आप  'पापा थे'  कैसे हो गए ?
मैं तो आज भी आपकी ही बेटी हूँ.
लौट आओ न पापा !

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पपीहा तरसे ज्यू सावन को
मन तरसे बाबुल अंगना को
कैसे उस घर की राह करूँ, जहाँ
बाबुल नहीं  अब गल्बैयन को


जब जब उस देहरी जाऊं
हर कोने मोरे बाबुल पुकारें
नयन निचोडूं के मन को भींचूं
यादों की अगन जलाये.


पैरों  पर  मेरे पैर संभाले   

दुनिया में चलना सिखाया था 
सीने से लगा इस लाडो की  
हर चोट पे मरहम लगाया था. 

साथ बैठा कर दक्ष कराया
पढ़ा लिखा कर ज्ञान बढाया था
हाथ पकड़ दूजे हाथ में सौपा,
बिटिया का घर संसार सजाया था.


सदाबहार के फूल सुगंध से
बाबुल अनत्स्थल में समाये हो
बाबुल-बाबुल मन ये पुकारे
जहाँ भी छुपे हो आ जाओ ना. 


Wednesday 9 May 2012

संघर्ष



प्रियजनों का प्रिय बनने के लिए
मैंने न जाने कितने ही दांव खेले
अपनी  चाहतों की अकुलाहट को 
सहलाने के लिए कितनों को ही 
अस्त-व्यस्त कर दिया....!
और निरंकुश मन की न होने पर ...
संघर्षों से घबराकर 
मौत मैं तुझे  मांगती रही ...!!

सोचती थी
दुखों से भागकर 
तुमसे आलिंगन 
कर लुंगी...
तुम तो तत्परता से
अपना ही लोगी मुझे !

मगर आज...
आज जब आँखों में 
अन्धकार है 
साँसों के उठाव में 
विषमता है.
देह का  ताप 
शिथिल हो चला है ...
तो ....
मेरा घर !
मेरे बच्चे !
मेरे मित्र !
मेरे आभूषण !
मेरे कपड़े  !
मेरी चाबियां !
मेरी  एश-ओ-आराम की चीजें !
ये सारा सामान
शनैः शनैः 
मुझे अपनी ओर 
खींचते  हैं.

चिर शान्ति के लिए  
मन की यह अशांति भी 
कितनी भयावह है !

चिर निद्रे !
तुम भी कितनी आलसी हो 
कैसी विडम्बना है 
स्वतः कामना करके भी 
आज तुमसे भी 
संघर्ष है !